जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा

जीन पियाजे


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जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा

जीन पियाजे (1896-1960) 

स्विस मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक जीन पियाजे (1896-1960) ने बच्चों में सोच के विकास का विस्तार से अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार मानव शिशु शुरूआत में संज्ञानी जीव नहीं होते। इसके बजाय अपनी बोधात्मक और गत्यात्मक गतिविधियों के द्वारा मनोवैज्ञानिक ढांचे, अनुभवों से सीखने के संगठित तरीके जिनके द्वारा बच्चे ज्यादा प्रभावशाली ढंग से खुद को अपने पर्यावरण के अनुकूल ढाल पाते हैं और निखारते हैं।

इन ढांचों को विकसित करते समय बच्चे गहन रूप से सक्रिय रहते हैं। वे अनुभवों के मौजूदा ढांचों का उपयोग करते हुए उनका चुनाव करते हैं और अर्थ निकालते हैं तथा वास्तविकता के और बारीक पक्षों को ग्रहण करने के लिए उन ढांचों में बदलाव करते हैं।

चूंकि पियाजे का मानना था कि बच्चे उनकी दुनिया के लगभग समस्त ज्ञान को उनकी अपनी गतिविधियों के द्वारा खोजते या निर्मित करते हैं अतः पियाजे के सिद्धान्त को संज्ञानात्मक विकास तक ले जाने वाला रचनात्मक मार्ग कहा जाता है।

संज्ञानात्मक विकास की पियाजे की अवधारणा

संज्ञानात्मक विकास से सम्बन्धित पियाजे के सम्प्रत्यय-

1. स्कीमा- मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार मानव विकास के तीन पक्ष हैं- a. जैविक परिपक्वता b. भौतिक पर्यावरण के द्वारा अनुभव c. सामाजिक पर्यावरण के द्वारा अनुभव। इन तीनों पक्षों में समन्वय करने वाली स्वचालित विकास प्रक्रिया को स्कीमा कहा जाता है।

2. अनुकूलन- व्यक्ति अपने आसपास के परिवेश के साथ अनुकूलन करता है जिसके लिए वह निम्न दो प्रक्रियाएँ अपनाता है-
  1. सात्मीकरण - पुराने विचारों तथा अनुक्रियाओं में नये विचारों व अनुक्रियाओं का समावेश करना सात्मीकरण है। इस अवस्था में पूर्व स्थापित ढंग में नयी परिस्थिति से अनुकूलन स्थापित किया जाता है।
  2. स्मंजन / संधानीकरण - अपने पुराने विचारों व अनुक्रियाओं का नये विचारों व अनुक्रियाओं में समावेश करना संघानीकरण है। इस अवस्था में नयी परिस्थिति में बालक अपना व्यवहार परिवर्तित करता है।
उदाहरण- यदि हम परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना दें तो यह सात्मीकरण है। यदि हम परिस्थितियों के अनुल बन जायें। तो स्मंजन या संघानीकरण है।

◾पियाजे की अवस्थाओं के बुनियादी लक्षण

पियाजे का मानना था कि बच्चे चार चरणों से होकर गुजरते हैं-
  1. संवेदी क्रियात्मक अवस्था (जन्म से 2 वर्ष तक)
  2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2 वर्ष से 7 वर्ष तक)
  3. स्थूल संक्रियात्मक अवस्था (7 वर्ष से 11 वर्ष तक)
  4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (11 वर्ष से ऊपर)

1. संवेदी- क्रियात्मक अवस्था (Sensori- motor stage)

जीवन के पहले दो वर्षों तक संवेदी- क्रियात्मक अवस्था रहती है। इसका नाम पियाजे की इस धारणा का द्योतक है कि शिशु और चलना शुरू वाले बच्चे अपनी आंखों, कानों, हाथों और अन्य संवेदी क्रियात्मक उपकरणों से सोचते हैं। वे अभी अपने दिमाग में बहुत सी मानसिक क्रियाएं नहीं कर पाते।

पियाजे ने अपने स्वयं के तीन बच्चों का बहुत ही सावधानीपूर्वक निरीक्षण किया तथा अपने अध्ययन का आधार बनाया। पियाजे के अनुसार, जन्म के समय शिशु अपने संसार के बारे में इतना कम जानते है कि वे सार्थक रूप से उसकी जांच-पड़ताल नहीं कर सकते।

वृत्ताकार प्रतिक्रिया, उन्हें उनकी पहली योजनाओं का अनुकूलन करने का साधन प्रदान करती है। इसमें शिशु की स्वयं की अंग संचालन क्रिया से अनायास होने वाला नया अनुभव शामिल होता है। यह प्रतिक्रिया "वृत्ताकार " इसलिए है क्योंकि शिशु किसी गतिविधि को बार-बार दोहराने की कोशिश करता है। इसलिए कोई संवेदी- क्रियात्मक प्रतिक्रिया जो पहले संयोग से हुई हो, बाद में मजबूत होकर एक नयी योजना में बदल जाती है।
उदाहरण - किसी दो माह की बच्ची की कल्पना करें जिसके होठों से कभी दूध पीने के बाद अनायास "चप्प" की आवाज निकल जाती है। बच्ची को वह आवाज अजीब लगती है, इसलिए वह उसे दोहराने की कोशिश करती है जब तक कि वह होठों से वह आवाज निकालने में निपुण नहीं हो जाती।

पहले दो वर्षों में वृत्ताकार प्रतिक्रिया कई तरीके से बदलती है। प्रारंभ में यह शिशु के स्वयं के शरीर पर केन्द्रित होती है। पियाजे के लिए नवजात शिशु की स्वतः होने वाली क्रियाएं ही संवेदी-क्रियात्मक बुद्धि की रचना करने वाली ईकाइयाँ होती है।

2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Preopera- tional stage)

बच्चों के संवेदी-क्रियात्मक अवस्था से पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था में (अर्थात् 2 वर्ष की आयु पार करके 7 वर्ष की आयु तक होने वाले विकास के दौर) में जाने पर उनकी मानसिक प्रतीक निर्माण प्रक्रिया में असाधारण परिवर्तन होता है, जो स्पष्ट दिखाई देता है। 

यद्यपि शिशुओं में पियाजे के सिद्धान्तानुसार संवेदी- क्रियात्मक योजना से प्रतीकात्मक योजना में हुआ परिवर्तन और आगे चलकर प्रतीकात्मक योजना में बचपन से वयस्क आयु तक होने वाले परिवर्तन दो प्रक्रियाओं के कारण होते हैं- a. अनुकूलन (ada-ptation), b. व्यवस्थापन (Organization ) 

a. अनुकूलन (Adaptation)-

परिवेश के साथ सीधे पारस्परिक क्रिया- प्रतिक्रिया के द्वारा योजनाएं बनाने को अनुकूलन कहते हैं। इसमें दो परस्पर पूरक गतिविधियाँ शामिल रहती हैं- समावेशीकरण (assimilation) तथा समायोजन (Accomodation)। 

समावेशीकरण के दौरान हम बाहरी संसार को समझने के लिए अपनी बनी हुई योजनाओं का उपयोग करते हैं।⇒ उदाहरण - (a) जब कोई शिशु बार-बार चीजों को गिराता है तब वह उनका अपनी संवेदी - क्रियात्मक योजना में समावेश कर रहा होता है। (b) स्कूल पूर्व आयु की कोई बच्ची जब चिड़ियाघर में पहली बार ऊँट देखकर घोड़ा, चिल्लाती है तो वह अपनी अवधारणात्मक योजनाओं को खंगालकर उस योजना को ढूंढ निकालती है जो इस अजीब दिखने वाले जानवर से मिलती- जुलती है।

समायोजन में यह देखने के बाद कि हमारे वर्तमान सोचने के तरीके परिवेश को पूरी तरह नहीं पकड़ पाते हम नयी योजनाएँ बनाते हैं या पुरानी योजनाओं को संशोधित करते हैं। वह बच्चा जो वस्तुओं को भिन्न-भिन्न तरीकों से गिराता है, वह उनके अलग- अलग गुणों के अनुसार अपनी गिराने की योजना को संशोधित करता है और स्कूल- पूर्व आयु की वह बच्ची जब ऊँट को "कूबड़ वाला घोड़ा कहती है तो उसने अपनी योजना को संशोधित कर लिया है।

पियाजे के अनुसार समय बीतने के साथ-साथ समावेशीकरण और संयोजन/समायोजन के बीच संतुलन बदलता रहता है। जब बच्चों में अधिक बदलाव नहीं हो रहा होता हैं तब वे समायोजन की तुलना में समावेश अधिक करते हैं। पियाजे इसे संज्ञानात्मक संतुलन की स्थिति कहता है जो उसकी दृष्टि में एक स्थिर सहज दशा है परंतु जब बच्चे तेजी से होते हुए संज्ञानात्मक परिवर्तनों से गुजर रहे होते हैं तब वे असंतुलन की स्थिति में होते हैं और एक तरह की संज्ञानात्मक उथल-पुथल का अनुभव करते हैं। उन्हें एहसास होता है कि नयी जानकारी उनकी वर्तमान योजनाओं से मेल नहीं खाती, इसलिए वे समावेशीकरण से हटकर समायोजन की ओर उन्मुख हो जाते है पर जब वे अपनी योजनाओं को संशोधित कर लेते हैं तब वे फिर से समावेशीकरण की ओर लौटते हैं और अपनी बदली हुई संरचनाओं का उपयोग करते हैं जब तक कि उन्हें फिर से संशोधित करने की जरूरत नहीं पड़ती।

पियाजे ने संतुलन और असंतुलन के बीच इस प्रकार डोलने को दर्शाने के लिए संतुलनीकरण शब्द का उपयोग किया है। हर बार जब भी संतुलनीकरण होता है तो उससे अधिक कारगर योजनाएँ उपजती हैं। चूंकि प्रारंभिक दौरों में ही सबसे अधिक समायोजन होता है इसलिए संवेदी- क्रियात्मक अवस्था पियाजे के लिए विकास का सबसे जटिल दौर है।

b. व्यवस्थापन (Organization) -

व्यवस्थापन के द्वारा भी योजनाएँ बदलती हैं। यह प्रक्रिया परिवेश के साथ सीधे संपर्क से अलग हटकर, आंतरिक रूप से घटती है। एक बारगी जब बच्चे नयी योजनाएँ बना लेते हैं तो वे उन्हें पुरानी योजनाओं से जोड़कर पुनर्व्यवस्थित करते हैं और इस तरह एक मजबूत अंतसंबंधित संज्ञानात्मक तंत्र की रचना करते हैं।

उदाहरण के लिए "गिराने की गतिविधि में संलग्न बच्चा अंततः इसका संबंध "फेंकने" से और फिर उसकी "पास" और "दूर" की विकसित होती समझ से जोड़ लेगा।

छोटे बच्चों को विभिन्न प्रकार के चिन्हों और प्रतीकों जैसे चित्र पुस्तकें, फोटो, चित्र, खेल- नाटक और नक्शे से परिचित कराने से उन्हें यह बात समझने में मदद मिलती है कि एक वस्तु दूसरी वस्तु को निरूपित कर सकती है। उम्र बढ़ने के साथ बच्चे विविध प्रकार के अनेकों प्रतीकों को समझने लगते हैं, जिनमें उन चीजों से कोई स्पष्ट भौतिक समानता नहीं होती जिन्हें वे निरूपित करते है और इससे फिर ज्ञान के विराट क्षेत्रों के द्वार उनके लिए खुल जाते हैं।

भाषा और विचार 

पियाजे मानते थे कि मानसिक - प्रतीकों में संसार को निरूपित करने का हमारा सबसे लचीला साधन भाषा है। इसके माध्यम से विचार को क्रिया से अलग करने के द्वारा सोचने की प्रक्रिया पहले से काफी अधिक सक्षम हो जाती है। शब्दों में सोचने से हम अपने तात्कालिक अनुभवों की सीमाओं के पार जा सकते है। हम एक साथ अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सोच सकते हैं और अपनी अवधारणाओं को अनोखे तरीकों से जोड़ सकते हैं। जैसे कि हम किसी भूखी बिल्ली के केले खाने की या जंगल में रात को दैत्यों के उड़ने की कल्पना कर सकते हैं। 

खेल में स्वांग करना बच्चों का कुछ कल्पना करके उसका स्वांग करना अर्थात् उसे हांव- भाव सहित दर्शाना भी प्रारंभिक बचपन में प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के विकास का एक और बढ़िया उदाहरण है। पियाजे का विश्वास था कि नाटक करके, नकलें उतारकर बच्चे नई सीखी प्रतीकात्मक युक्तियों को पक्का करते हैं। पियाजे के विचारों के आधार पर कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने स्कूलपूर्व के वर्षों में बच्चों के नकल खेलों स्वांग में होने वाले परिवर्तनों की पहचान की है ।

पूर्व-संक्रियात्मक सोच की सीमायें 

पियाजे के अनुसार छोटे बच्चों में संक्रियायें करने की क्षमता नहीं होती। संकियायें ऐसी वास्तविक क्रियाओं का मानसिक निरूपण होती हैं जो तार्किक नियमों से चलती हैं। इसके बजाय उनकी सोच बंधी हुई / लोचरहित तथा एक समय में परिस्थिति के एक ही पक्ष तक सीमित होती है, साथ ही यह इससे बहुत प्रभावित होती है कि किसी क्षण पर चीजें कैसी प्रतीत होती हैं।

आत्मकेन्द्रित तथा जीववादी सोच 

पियाजे के लिए पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था की सबसे बड़ी कमी, जो शेष सभी दोषों का आधार है, आत्मकेंद्रीयपन है- अपने अलावा दूसरों के प्रतीकात्मक दृष्टिकोणों को समझने में असमर्थ होना । → पियाजे द्वारा आत्मकेंद्रीयपन के चरण की पुष्टि करने वाला सबसे भरोसमंद प्रदर्शन उसकी प्रसिद्ध तीन पर्वतों की समस्या के रूप किया गया।

3. स्थूल / मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (The concrete operational stage) 

पियाजे के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में एक बड़ा मोड़ मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में आता है, जो लगभग 7 से 11 वर्ष तक रहती है। इसमें विचार पहले की अपेक्षा अधिक तर्क संगत, लचीला और व्यवस्थित होता है व छोटे बच्चों के बजाय बड़ों की विचार प्रक्रिया से अधिक मिलता-जुलता है।

मूर्त संक्रियात्मक विचार

 संरक्षण- 

संक्रियाओं का स्पष्ट प्रमाण संरक्षण के कामों को सफलतापूर्वक करने की क्षमता से मिलता है। उदाहरण- द्रव के संरक्षण के संदर्भ में बच्चे समझने लग जाते हैं कि द्रव की मात्रा नहीं बदलती है। जब उसे गिलास से कटोरी में उड़ेला जाये।

पियाजे की मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में स्कूल आयु के बच्चे मूर्त वस्तुओं के बारे में व्यवस्थित और तार्किक ढंग से सोचते हैं।

क्रमिकता-

चीजों का उनके किसी गुण के परिमाण के हिसाब से (किसी परिमाणात्मक आयाम में) जैसे कि लम्बाई या वजन, क्रम निर्धारित करने की क्षमता क्रमिकता कहलाती है। इसकी परीक्षा के लिए पियाजे ने बच्चों से अलग-अलग लंबाइयों वाली कुछ डंडियों को सबसे छोटी से सबसे बड़ी तक के क्रम में जमाने को कहा। स्कूलपूर्व आयु के थोड़े बड़े बच्चे डंडियों की श्रृंखला तो बना देते हैं, पर वे यह काम बेतरतीब ढंग से करते हैं। डंडियों को एक कतार में तो रख देते हैं, पर क्रम में कई गलतियाँ करते हैं और उन्हें सुधारने में बहुत समय लगाते हैं। इसके विपरीत 6 से 7 साल के बच्चे एक क्रमबद्ध योजना से यह काम करते हैं। वे सबसे छोटी डंडी से शुरू करके फिर उससे बड़ी फिर उससे बड़ी इस प्रकार क्रम पूरा करके दक्षतापूर्वक श्रृंखला तैयार कर देते हैं।

स्थानिक सोच-

पियाजे ने पाया कि स्कूल आयु के बच्चों की स्थान विस्तार की समझ स्कूलपूर्व आयु के बच्चों के अधिक सही होती है। यहां हम इसके दो उदाहरण लेते है- दिशाओं की, तथा नक्शों की समझ।

संज्ञानात्मक नक्शे-

बच्चों द्वारा अपने परिचित बड़े स्थान- विस्तारों, जैसे कि अपने मोहल्लों या स्कूलों के मानसिक निरूपणों को संज्ञानात्मक नक्शे कहा जाता है। किसी बड़े स्थान विस्तार का नक्शा बनाने के लिए दृश्य को मानसिक रूप से ग्रहण करने के काफी अधिक कौशल की जरूरत पड़ती है, क्योंकि समूचे स्थान विस्तार को एक साथ नहीं देखा जा सकता। इसके बजाय, बच्चे उसके हिस्सों का आपस में संबंध जोड़कर पूरे स्थान विस्तार की कल्पना ही कर सकते हैं।

4. औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational stage)

पियाजे के अनुसार लगभग 11 वर्ष की उम्र में बच्चे औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था में प्रवेश करते हैं। इस अवस्था में वे अमूर्त, वैज्ञानिक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित करते हैं। जहाँ मूर्त संक्रियात्मक अवस्था के बच्चे "वास्तविक संसार के साथ संक्रियायें" करते हैं वहीं औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के किशोर संक्रियाओं के साथ संक्रिया कर सकते हैं।

दूसरे शब्दों में विचार करने के लिए उन्हें अब बाहर की मूर्त वस्तुओं और घटनाओं की जरूरत नहीं रह जाती, बल्कि वे आंतरिक चिन्तन करके नये और अधिक तार्किक नियम गढ़ने में समर्थ हो जाते है।"

परिकाल्पनिक - निगमित तर्क (Hypothe- tico-Deductive Reasoning):-

किशोरावस्था में लोग परिकाल्पनिक- निगमित ढंग से विचार करने में समर्थ हो जाते हैं। जब उनके सामने कोई समस्या आती है, वे परिणाम दे सकने वाले सभी संभव कारकों के एक सामान्य सिद्धान्त से प्रारंभ करते हैं, और उससे संभावित घटनाओं के बारे में विशेष परिकल्पनायें निकालते हैं। फिर वे उन परिकल्पनाओं का यह देखने के लिए व्यवस्थित परीक्षण करते हैं कि उनमें से कौन सी वास्तविक संसार में काम करती है।

प्रस्थापनात्मक सोच (Proposititional thought):-

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण प्रस्थापनात्मक सोच है। किशोर वास्तविक संसार की परिस्थितियों का सहारा लिए बिना शाब्दिक वक्तव्यों के तर्क का मूल्यांकन कर सकते है। इसके विपरीत बच्चे वक्तव्यों पर वास्तविक संसार में मिलने वाले प्रमाणों के संदर्भ में विचार करके ही उनके तर्क का मूल्यांकन कर सकते हैं।

निष्कर्ष-

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा में बालक के क्रमबद्ध मानसिक विकास के सम्बंध में विस्तारपूर्वक टिप्पणी की हैं। जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास द्वारा हम बालक की मनोस्थिति को समझ सकते हैं और शिक्षण प्रक्रिया में इस सिद्धान्त के द्वारा हम शिक्षण नीति के निर्माण से छात्रों के मानसिक विकास में वृद्धि कर सकतें हैं
जीन पियाजे से संबन्धित प्रश्न अनेक परीक्षाओं जैसे CTET, UPTET, REET, UTET, SUPERTET, KVS  इत्यादि परीक्षाओं में प्रत्येक वर्ष पूछे जाते हैं। जीन पियाजे पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न आपको अगली पोस्ट में मिलेंगे। 
आप नीचे दिये गए लिंक से और भी पोस्ट जो परीक्षाओं के लिए उपयोगी है देख सकते हैं।


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